Sonntag, 12. Oktober 2014
आर्थिक संकट: बचने की कोई राह नहीं यूरोपीय संघ या पूंजीवाद के पास
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में मुख्य अर्थशास्त्री ओलिविए ब्लॅनचॉर्ड के अनुसार यूरोजोन और विश्व अर्थव्यवस्था बहुत ही खतरनाक हालात में हैं। अप्रैल 2012 में ब्लॅनचॉर्ड ने चेतावनी दी कि अगर ग्रीस यूरो से बाहर निकल जाता है तो "संभव है कि यूरो क्षेत्र की अन्य अर्थव्यवस्थाएं गंभीर दबाव में आ जाएँ और वित्तीय बाजारों में भारी आतंक फैल जाएगा। इन परिस्थितियों में, यूरो क्षेत्र के विघटन की संभावना से इंकार नहीं किया सकता है। यह प्रमुख राजनीतिक झटका पैदा कर सकता है जो आर्थिक तनाव को लीमैन के पतन के वक्त व्याप्त तनाव से उँचे स्तर तक भड़का सकता है।" ऐसा झटका वास्तम में “1930 के दशक की याद दिलाती एक प्रमुख मंदी पैदा कर सकता है"[1]
इसी कारण, जैसा कि अनेक ‘विशेषज्ञ' हलकों में भविष्यवाणी की गई थी, यूरोपीय संघ को एक नये आर्थिक उभार पैकेज को मंजूरी देने और संघ के अधिक केंद्रीकरण की ओर कदम आरंभ करने को बाध्य होना पडा है। "ईयू नेता यूरोजोन के नियोजित आर्थिक उभार फंड को संकटग्रस्त बैंकों के सीधे समर्थन के लिए, सरकारी ऋण में इजाफे के बिना, प्रयोग करने के लिए सहमत हो गए हैं।
13 घंटे की वार्ताओं के बाद वे यूरोजोन के लिए एक संयुक्त बैंकिंग पर्यवेक्षक के गठन पर भी सहमत हो गए। स्पेन और इटली ने जर्मनी पर दबाव डाला कि उभार फंड को बाजार से सरकारी ऋण खरीदने की अनुमति दी जाए – जो उधार लेने के खर्च पर नियंत्रण का उपाय है”। [2]
हालांकि जर्मनी को इटली और स्पेन जैसे संघर्षरत देशों को नीतिगत रियायतें देनी पडी हैं, वह यूरोपीय संघ को अधिक केंद्रीकरण की ओर लेजाने में अग्रणी है। मसलन मार्केल ने जर्मन संसद को बताया कि अगर देश चाहते हैं केन्द्रीय रूप से जारी यूरोबांड उनके ऋणों की गरंटी दें तो उन्हे अधिक केंद्रीय नियंत्रण स्वीकार करना होगा: "संयुक्त देयता केवल तभी हो सकती हैं जब पर्याप्त नियंत्रण स्थापित हो”। केन्द्रीकरण की ओर यह कदम पहले ही उस नए समझौते का हिस्सा था जिसके साथ एक संयुक्त बैंकिंग पर्यवेक्षी दल सथापित करने का निर्णय लिया गया था, लेकिन अधिक महत्वाकांक्षी योजनाएँ समीक्षाधीन है:
“यूरोपीय अधिकारियों ने एक यूरोपीय वित्त विभाग, जिसका राष्ट्रीय बजटों पर अधिकार होगा, की स्थापना जैसे प्रस्तावों का भी अनावरण किया है। दस वर्षीय योजना [2] यूरोजोन को मजबूत करने और भावी संकटों को रोकने के लिए बनाई गई है लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह मौजूदा ऋण समस्याओं का समाधान नहीं करती”।
मार्केल ने यह भी प्रस्ताव रखा है कि भविष्य में ईयू परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय तरीके से निर्वाचित हो। संक्षेप में, अगर जर्मनी ने पूरे यूरोजोन के लिए अंतिम ऋणदाता के रूप में काम करना है, तो यूरोजोन के देशों को जर्मन साम्राज्यवाद की बढ़ती भूमिका को स्वीकार करना होगा।
बचने की कोई राह नहीं यूरोपीय संघ या पूंजीवाद के पास
यहाँ हम पूरे यूरो और यूरोपीय संघ परियोजनाओं की कमजोरी देख सकते हैं। आर्थिक संकट के समक्ष, एक बढ़ती प्रवृत्ति है प्रत्येक देश का अपने हितों की रखवाली की कोशिश करना जो कि यूरोपीय संघ के टूटन को तेज़ करता है। तब संकट के तत्काल प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिश में जर्मनी सामने आता है लेकिन अधिक आधिपत्य की उसकी मांगें राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विताओं को तेज़ करती हैं, यह फिर संघ की स्थिरता के लिए खतरा पैदा करता है। यूरोप के पिछले सौ साल के इतिहास को देखते हुए, अन्य मुख्य यूरोपीय शक्तियें, विशेष रूप से फ्रांस और ब्रिटेन, जर्मन अधिपत्य वाले एक यूरोप को स्वीकार नहीं करेंगे।
पर आर्थिक स्तर पर भी, पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनाये जा रहे उपाय तबाही की ओर गति को धीमा भर कर सकते हैं। जैसा कि हमने यहाँ लेख [3] में दिखाया है, अति उत्पादन के वैश्विक संकट ने शासक वर्ग को एक असमाधेय दुविधा में धकेल दिया है: विकास की ओर बढने का अर्थ है और अधिक ऋण का जमा होना, और यह मुद्रास्फीति तथा दिवालियेपन की ओर दबाव को ही तेज़ करता है। कठोरता और कड़की की नीतियां (और/या संरक्षणवाद) क्रय शक्ति को सीमित करके संकट को और भड़काती हैं और इस प्रकार बाजार को और भी संकुचित करती हैं।
पूंजीपति वर्ग स्थिति की गंभीरता को समझने लगा है। अब बह चिंतित “डबल-डिप रिसेशन” को लेकर नहीं है। अब वह 1930 के दशक जैसी मंदी की अधिकाधिक खुले तौर पर बात कर रहा है। आप पढ़ सकते हैं कैसे "इटली या स्पेन का ध्वंस यूरोप को एक अभूतपूर्व आर्थिक तबाही में धकेल सकता है", और कैसे उन्हें डर है कि हस्तक्षेप को टाला जा रहा और कि "राजनीतिक नेता आधी रात से केवल एक मिनट पहले, जब यूरोप एक भयानक आर्थिक खाई में झांक रहा होगा, कदम उठाने को मज़बूर होंगे”।[4]
वास्तव में, मंदी पहले ही आ चुकी है और स्थिति पहले ही 1930 के दशक से बदतर है। 1930 के दशक में संकट से उभार का एक रास्ता था: राज्य पूंजीवादी उपायों को अपनाना - चाहे फासीवाद, हो, स्तालिनवाद हो, या नई डील के रूप में हो – जो अर्थव्यवस्था को कुछ नियंत्रण मे ला पाया। आज संकट ठीक राज्य पूंजीवाद का संकट है : राज्य के जरिये (विशेष रूप से कर्ज का सहारा लेने की राज्य की नीति) व्यवस्था को नियंत्रित करने के शासक वर्ग के सभी प्रयास उसकी आंखों के सामने तारतार हो रहे हैं।
ख़ासकर, 1930 के दशक मे युद्ध की राह खुली थी क्योंकि 1917 के अपने क्रांतिकारी प्रयास की असफलता के बाद मजदूर वर्ग हार की स्थिति में था। युद्ध की ओर गमन ने एक युद्ध अर्थव्यवस्था निर्मित करके बेरोजगारी को सोखना संभव बनाया; और सवंय युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था के पुनगठन को तथा उस आर्थिक उछाल के आरंभ को संभव बनाया जो 1970 के दशक तक जारी रहा।
यह विकल्प आज उपलब्ध नहीं है; पुरानी ब्लाक व्यवस्था के पतन के बाद, साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था अधिकाधिक बहुध्रुवीय बन गई है। अमेरिकी नेतृत्व कमजोर से कमजोरतर हुआ है। यूरोप के जर्मन नियंत्रण का विरोध इस बात का सबूत है कि यूरोप कभी एक सैन्य गुट में एकजुट नहीं हो पाएगा। चीन और रूस जैसी उदीयमान अथवा पुनर उबरती अन्य शक्तियां में अपने इर्दगिर्द एक स्थायी अंतरराष्ट्रीय गठबंधन खडा करने की क्षमता नहीं है। संक्षेप में एक विश्व युद्ध लड़ने के लिए जरूरी गठबंधन अस्तित्व में नहीं हैं। और अगर वे होते तो एक तीसरे विश्व युद्ध द्वारा बरपा विनाश एक और ‘युद्धोत्तर उभार' को असंभव बना देगा।
ख़ासकर, मुख्य पूंजीवादी देशों का मजदूर वर्ग 1930 के दशक की तरह हार की स्थिति में नहीं है। अपनी सभी कमजोरियों और हिचकिचाहटों के बावजूद वह समृद्ध और ताकतवर लोगों के उन तर्कों को खारिज़ करने की तत्परता दिखा रहा है जो उसे ‘सब की भलाई’ के लिए अपने जीवन स्तरों का बलिदान करने के लिए कह रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में हमने बांग्लादेश और मिस्र में बड़े पैमाने पर हडतालें, सम्पूर्ण मध्यपूर्व, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में सामाजिक विद्रोह, फ्रांस और ब्रिटेन में पेंशन में प्रस्तावित कटौती का विरोध और ब्रिटेन, इटली तथा कनाडा आदि में शिक्षा की लागत में बढोतरी के खिलाफ छात्र विद्रोहों को देखा है।
लेकिन इन संघर्षों का स्तर अभी भी शोषित वर्ग के रूबरू वस्तुगत स्थिति द्वारा अपेक्षित स्तर से काफी नीचे है। ग्रीस में, हम देख सकते हैं मजदूर वर्ग के जीवन स्तरों को कैसे क्रूर तरीके से गिराया जा रहा: बड़े पैमाने पर नौकरियों का खात्मा, वेतन, पेंशन और अन्य लाभों को सीधे घटाया जाना, जिसका परिणाम यह है कि अनगिनत परिवार जो पहले एक साधारण जीवन की उम्मीद रख सकते थे अब, वे जब वास्तव मे गलियों में नहीं जी रहे, वे खेराती भोजन पर निर्भर हैं। ग्रीस में, रोटी की और दान की कतारों के साये, जो कई के लिए 1930 के दशक का सार हैं, पहले ही एक दर्दनाक वास्तविकता हैं। और ये स्पेन, पुर्तगाल, और अन्य सभी देशों की ओर फैल रहे हैं जो पूंजीवाद के ताश के पत्तों के महल के ढहन की प्रक्रिया की चपेट में आने वालों में पहले हैं।
ऐसे हमलों के रूबरू, डर से अभित्रस्त मजदूर कई बार झिझक सकते हैं। उनके ऊपर विचारधारा की एक पूरी बौछार से भी हमला किया जाता है – शायद हमें वामपंथ को वोट देने तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जरूरत है, शायद हमें दक्षिणपंथियों को वोट देना और सब चीज़ों के लिए बाहरियों को दोष देना चाहिए। और मज़दूरों के प्रतिरोध को सक्रिया रूप से पंगु बनाती यूनियनें हैं, हमने ग्रीस, स्पेन तथा पुर्तगाल में एक दिवसीय हड़तालों की एक श्रांखला में तथा ब्रिटेन में सार्वजनिक क्षेत्र में अन्तहीन 'कार्रवाई दिवसों’ मे यह देखा है।
ये सभी विचारधाराएँ यह आशा जीवित रखने की कोशिश करती हैं कि कुछ चीज़ों को वर्तमान व्यवस्था के अंदर बचाया जा सकता है। व्यवस्था का संकट जो उसके प्रबंधन के लिए स्थापित तमाम ढांचों को झकझोर रहा है बहुत प्रभावी तरीके से साबित करेगा कि यह नहीं हो सकता।
डब्लू आर-355, 1 जुलाई 2012
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